Discus the Gandhian theory of State.(राज्य के संबंध में गाँधीजी के सिद्धांत का वर्णन।)

 Discus the Gandhian theory of State. (राज्य के संबंध में गाँधीजी के सिद्धांत का वर्णन।) 

गाँधीजी के राज्य संबंधी विचार दार्शनिक अराजकतावादी जैसे थे। उन पर रूस के दार्शनिक विचारक टाल्सटाय का प्रभाव अमिट रूप से विद्यमान था। उनकी मान्यता थी कि राज्य शक्ति व शोषण पर आधारित होता है। गाँधीजी के विभिन्न कथन इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि राज्य को समाप्त करने की उनकी स्वाभाविक इच्छा थी। उनका कथन था राज्य हिंसा का सुसंगठित व सक्रिय रूप है। मनुष्यों की आत्मसत्ता होती है, पर राज्य एक ऐसी मशीन है जिसमें आत्मा नहीं है। राज्य की बढ़ती हुई शक्ति को मैं अत्यन्त भय की दृष्टि से देखता हूँ। यद्यपि ऊपर से देखने पर राज्य शोषण को कम करने के कारण एक भलाई कर रहा है, पर व्यक्तिगत अस्मिता का विनाश करने के कारण इससे मनुष्य जाति को भारी क्षति पहुँचती है। क्योंकि सब उन्नति का मूल व्यक्तिगत हो है। गाँधीजी उपर्युक्त कारणों की अस्मिता से राज्य के अस्तित्व को समाप्त करने के पक्षपाती थे। वे तो ऐसे समाज की स्थापना करने के पक्षपाती थे जिसमें व्यक्ति राज्य के अभाव में भी अपने सामाजिक जीवन का स्वयं संचालन करे। उनके अनुसार ऐसे राज्य का प्रत्येक मनुष्य अपना शासक स्वयं होता है। वह अपना शासन इस ढंग से करता है, जिससे कि वह अपने पड़ोसी के रास्ते में किसी भी प्रकार से बाधा उपस्थित नहीं करता, अतः आदर्श समाज में कोई राजनीतिक शक्ति नहीं होती क्योंकि तब राजसंस्था रहेगी ही नहीं। इस प्रकार गाँधीजी 'शक्ति व हिंसा' के प्रतीक राज्य को नैतिक ऐतिहासिक आधार पर समाप्त करने के पक्षपाती थे। व्यक्ति की गरिमा में विश्वास कर वे आदर्श समाज में राज्य की आवश्यकता का अनुभव ही नहीं करते थे। अतः इस दृष्टि से उनके ये विचार अराजकतावादियों से मिलते थे, परन्तु गांधीजी अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए क्रांतिकारी व हिंसात्मक मार्ग का प्रतिपादन नहीं करते थे। वे तो आदर्श समाज की रचना शांति, प्रेम व अहिंसा द्वारा ही करने के पक्षपाती थे। इससे स्पष्ट है कि उनके विचार टाल्सटाय से ही प्रभावित थे।
गाँधीजी राज्य को एक आवश्यक बुराई समझकर उसका तिरस्कार करते थे। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य मूल रूप से एक आध्यात्मिक प्राणी है, इसका वास्तविक स्वभाव स्वतंत्रता प्रिय है। मानव आत्म की स्वतंत्रता चाहता है। सच्ची स्वतंत्रता का अर्थ है पूर्ण आत्मानुशासन और आत्मसंयम जो केवल ज्ञानमय अराजकता की स्थिति में ही सम्भव है। राज्य शक्ति तथा हिंसा का प्रतीक है। अतः गाँधीजी राजविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। समाज का अहिंसा पर आधारित होना तभी सम्भव है जब सभी प्राणी अपने कर्तव्य का पालन करें तथा परस्पर सहयोग से कार्य करें। गाँधीजी का विश्वास था कि गाँवों में निवास करने वाले सभी व्यक्ति यदि स्वेच्छापूर्वक सहयोग का वातावरण निर्माण करें तथा शांति के आधार पर जीवन व्यतीत करें, तो अहिंसात्मक समाज का निर्माण किया जा सकेगा तथा वे परस्पर एक-दूसरे को सहयोग देंगे। यह संगठन हिंसा पर नहीं, अहिंसा पर आधारित होगा तथा लोकतंत्रीय पद्धति पर कार्य करेगा। सामाजिक दृष्टि से सभी समान होंगे। ऊँच-नीच व छूत-अछूत का प्रश्न इस समाज में उपस्थित नहीं होगा। आर्थिक समानता ही इस ग्राम का आदर्श होगा। आर्थिक समानता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके आवश्यकतानुसार अवश्य ही प्राप्त होगी। सभी व्यक्ति सत्य, अहिंसा अस्तेय, (चोरी न करना), अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों का पालन करेंगे। वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिश्रम करके आत्मनिर्भर बनने का प्रयत्न करेंगे। इससे दूसरों के शोषण का अवसर ही न होगा। कृषि तथा गृह-व्यवसायों में मालिक तथा श्रमिक का अन्तर समाप्त होने की प्रवृति का अन्त हो जायगा। पूँजीवादी के विकास का मार्ग आदर्श समाज में अवरुद्ध हो जायगा। बड़े कारखाने के न होने से गाँवों में शोषण का अवसर न होगा, न कोई दूसरों के श्रम का लाभ उठा सकेगा और शक्ति व पूँजी के केन्द्रीकरण का अवसर भी नहीं रहेगा।

उपर्युक्त दृष्टि से ग्रामों का संगठन होगा। उनमें निवास करनेवाले व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में स्वतंत्र होंगे। इस समाज में शक्ति का प्रयोग न होगा, सभी अपनी इच्छा से समस्त कार्य करेंगे, न कोई शासक होगा, न शासित। प्रत्येक व्यक्ति अपना शासक स्वयं होगा, जो अपना शासन इस प्रकार करेगा कि वह अपने पड़ोसी के मार्ग में बाधक सिद्ध न हो। आर्थिक एवं सामाजिक असमानता का भी अन्त हो जाएगा। सभी समता का व्यवहार करेंगे।

राज्य यदि किसी रूप में शेष भी रहता तो इसी प्रकार के स्वतंत्र व स्वावलम्बी ग्रामों का समुदाय होगा। प्रत्येक ग्राम एक प्रजातंत्र अथवा पंचायत होगी। उसमें पूर्ण सत्ता होगी तथा प्रत्येक ग्राम को स्वावलम्बी तथा अपना प्रबन्ध स्वयं कर लेने के योग्य बनाना होगा। ग्राम-पंचायतों को सत्ता केन्द्रीय सरकार से नहीं, अपितु ग्रामवासियों से ही प्राप्त होगी। ग्राम शक्ति के प्रदाता होंगे और उनकी इच्छानुसार ही राज्य का निर्माण होगा।

गाँधीजी की धारणा यह है कि ग्राम ही वास्तविक शक्ति के स्रोत होंगे और यह शक्ति हिंसा पर आधारित न होकर अहिंसा व नैतिकता पर आधारित होगी। वस्तुतः गाँधीजी राजनीतिक आर्थिक क्षेत्रों में केन्द्रीकरण का उन्मूलन कर विकेन्द्रीकरण की नीति के प्रतिपादक थे।
राज्य का कार्य-क्षेत्र : गाँधीजी राज्य को शक्ति व हिंसा का प्रतीक समझते थे, अत: आदर्श रूप में वह राज्य को समाप्त करने के पक्ष में थे तथापि वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में उनका विचार था कि राज्य कुछ सीमा तक अपनी उपादेयता सिद्ध कर सकता है। अहिंसा तथा सहयोग के आधार पर संगठित समाज में राज्य को न्यूनतम हस्तक्षेप करने का अवसर प्राप्त होगा। राज्य को अनेक कार्य ऐसे करने पड़ रहे हैं जिन्हें लोग स्वेच्छापूर्वक संगठित होकर कर सकते हैं। उनके शब्दों में, “स्वशासन का अर्थ है, सरकार के नियंत्रण से अधिक-से-अधिक स्वतंत्र होते जाना, चाहे वह सरकार विदेशी हो चाहे राष्ट्रीय। वह स्थिति बहुत दयनीय होगी जिसमें लोग जीवन के प्रत्येक पहलू पर सरकार द्वारा नियंत्रण की इच्छा रखें।"

उन्होंने अन्यत्र लिखा था, "मैं स्वीकार करता हूँ कि कतिपय बातें ऐसी हैं जिन्हें राजनीतिक शक्ति के बिना कर सकना सम्भव नहीं है, पर साथं ही बहुत-सी ऐसी बातें भी है, जिसके लिए राजशक्ति पर आश्रित रहने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।" इसी कारण थोरो जैसे विचारक ने कहा था कि "वह सरकार सर्वश्रेष्ठ है जो कम-से-कम शासन करती है। एक राष्ट्र जो अपने मामलों का इस ढंग से संचालन करता है कि उसमें राज्य का हस्तक्षेप कम-से-कम हो, वही सच्चा लोकतंत्र होता है। जहाँ यह बात न हो, वह राज्य केवल नाम का ही लोकतंत्र होता है।'

गाँधीजी का विश्वास था कि अहिंसात्मक साधन द्वारा प्रजातंत्र मूर्तिमान किया जा सकता था, तथापि वे लोकतंत्र में बहुमत की समस्या के प्रति भी जाग्रत थे। उनका मत था कि लोकतंत्रात्मक शासन के कुशल संचालन के लिए बहुसंख्यकों का ही नहीं, वरन् अल्पसंख्यकों का सहयोग भी आवश्यक है। यह आवश्यक नहीं है कि बहुमत सदैव सत्य हो।


उन्होंने प्रजातंत्र में चुनाव तथा प्रतिनिधित्व प्रणाली के संबंध में भी विचार व्यक्त किये हैं। चुनाव के संबंध में उनकी धारणा यह थी कि चुनाव के द्वारा एक शोषणकारी वर्ग का जन्म होता है, जिसके द्वारा व्यक्ति का नैतिक पतन कर दिया जाता है। सदस्यगण अपने दल को बिना विचारे ही मत प्रदान कर देते हैं। चुनावों में अत्यधिक व्यय होता है, वह व्यक्ति को अनेक झूठी बातें बोलने के लिए प्रेरित करता है।

मताधिकार के संबंध में उनका मत था कि यह अधिकार सम्पत्ति अथवा शिक्षा के आधार पर नहीं मिलना चाहिए। वोट देने का अधिकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को प्राप्त होना चाहिए जो श्रम द्वारा आजीविका अर्जन करते हैं। केवल नि:स्वार्थ व योग्य व्यक्तियों को ही निर्वाचन में खड़ा होने का अधिकार होना चाहिए। जनता की सेवा की इच्छा के आधार पर ही प्रतिनिधि का निर्वाचन किया जाय। जो व्यक्ति केवल सेवा की दृष्टि से निर्वाचित होना चाहेगा वह न चुनाव के लिए प्रचार करेगा, न प्रतिद्वन्द्वियों की निन्दा करेगा और न घर-घर वोट माँगता फिरेगा। जनता स्वयं उम्मीदवारों का उनकी योग्यता के आधार पर निर्वाचन कर लेगी।

गाँधीजी न्याय को सस्ता व सुलभ बनाना चाहते थे। वे मानते थे कि कानून को जटिल न बनाकर सुगम व सुबोध बनाना चाहिए तथा वकीलों को धन अर्जन करने की अपेक्षा न्याय कार्य में सहयोग देना चाहिए। व्यक्तियों के मुकदमे अदालतों द्वारा न होकर पंचों द्वारा ही सुलझाये जाएँ। पुलिस के पदाधिकारियों में जनहित की दृष्टि से कार्य करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। जन सेवा ही राज्य व शासन के पदाधिकारियों का मुख्य ध्येय होना चाहिए।
संसदीय संस्था के संबंध में उनकी अच्छी राय न थी। उन्होंने “हिन्द स्वराज्य' में ब्रिटिश संसद की तुलना एक पतित वेश्या से की है। इसके द्वारा कोई भी अच्छा कार्य अपनी इच्छा से नहीं किया जा सकता। इसका कोई वास्तविक स्वामी नहीं है। यह परिवर्तित होते हुए प्रधानमंत्रियों के नियंत्रण में कार्य करती है।
व्यवस्थापन में भी गाँधीजी को विश्वास न था। यह स्वीकार करना कि केवल कानून पारित करने से बुराइयों को दूर किया जा सकता है, स्वयं को धोखा देना है। मूल बात तो यह है कि हृदय को परिवर्तित किया जाय। कोई भी कानून स्थायी रूप से व्यक्ति के लिए बाध्यकारी नहीं हो सकता।

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