Critically examine the pluristic Theory of Sovereignty. (संप्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या करें)

 Critically examine the pluristic Theory of Sovereignty.

(संप्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या करें)



बहुलवादी सिद्धान्त सम्प्रभुता के निरंकुश तथा असीमित सिद्धान्त के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है। यह ऑस्टिन के एकलवाद तथा हेरोल के आदर्शवाद के विरुद्ध एक विद्रोह है। ऑस्टिन ने सम्प्रभुता को असीमित तथा अविभाज्य बतलाया तथा हेरोल ने राज्य को ईश्वरीय संस्था मानकर राज्य की सम्प्रभुता को अनियंत्रित कहा है।

सम्प्रभुता की उपर्युक्त अद्वैतवादी धारण (Monistic theory) के विरुद्ध जिस विचार धारा का उदय हुआ है उसे बहुलवादी सिद्धान्त या बहुलवाद कहा जाता है। बहुलवाद सम्प्रभुता की Monistic theory के विरुद्ध एक ऐसी प्रतिक्रिया कही जा सकती है, जो यद्यपि राज्य के अस्तित्व को बनाये रखना चाहती है। किन्तु, राज्य की सम्प्रभुता का अन्त करना श्रेयष्कर मानती है। बहुलवादी ने बतलाया कि सम्प्रभुता न तो अविभाज्य है और न निरंकुश है, बल्कि वह समाज के विभिन्न वर्गों या संघों के बीच बँटी हुई है तथा कानून केवल सम्प्रभु की आज्ञा मात्र नहीं है। बहुलवाद के प्रमुख विचारकों में Laski, Dr. Biggis, Dugvit, Krabbe, Basker, , Lindlay, Mac lver तथा Miss Follet आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन विचारकों ने सम्प्रभुता के Monistic theory पर कुछ प्रहार किया है। उन्होंने सम्प्रभुता के उस परम्परागत सिद्धान्त को हानिकारक, निरर्थक तथा अनैतिक बतलाया है। क्रैब ने यहाँ तक कहा है कि "The nation of sovereignty must be expunged from political theory.” उसी तरह Laski ने भी कहा है कि- "It would be of lasting benefit for the political science if the whole concept of Sovereignty surrendered."

बहुलवादी की व्याख्या : बहुलवाद के मौलिक सिद्धान्तों की व्याख्या बहुलवादियों के द्वारा अद्वैतवाद पर से किया जा सकता है। बहुलवादियों ने एकलवाद पर मुख्यतः निम्नलिखित तीन दृष्टिकोण से प्रहार किया है

1. विभिन्न संघों के दृष्टिकोण सेएकलवादी राज्य को सम्प्रभु मानते हैं। उनका कहना है कि अन्य सभी संघ राज्य के अधीन है। अन्य सभी संघ राज्य की इच्छा से बनायी जाती है, इसलिए वे राज्य की इच्छा पर निर्भर रहते हैं, लेकिन बहुलवादियों ने इसकी इन मान्यता का इस आधार पर खण्डन किया है कि अन्य सभी सामाजिक संघ स्वभावतः और स्वतः उत्पन्न होते हैं। अत: वे अपने अस्तित्व के लिए राज्य पर निर्भर नहीं करते और अपने कार्यकलापों के क्षेत्रों में राज्य के नियंत्रण से मुक्त होते हैं।

बहुलवादी यह मानकर चलते हैं कि मानव-जीवन के विभिन्न पहलुओं की अभिव्यक्ति विभिन्न संघों द्वारा होती है। यह सभी संघ स्वाभाविक है। इनकी निजी इच्छा तथा निजी व्यक्ति है और सभी संघ समानतीय है। राज्य भी इन्हीं संघों में एक संघ है। इस प्रकार सज्य का अन्य संघों पर कोई प्रधानता नहीं है। अतः सम्प्रभुता केवल राज्य में ही नहीं बल्कि विभिन्न संघों में विभाजित है। अर्थात् सम्प्रभुता विभाजित तथा सीमित है।

2. कानून के दृष्टिकोण से : बहुलवादियों ने सम्प्रभुता के एकलवादी सिद्धान्त पर दूसरा प्रहार कानून के दृष्टिकोण से किया है। Austin ने कानून का एक भाग राज्य को माना है और यह कहा है कि कानून प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य का आदेश मात्र होता है। किन्तु, Dugvit और Krabbe आदि बहुलवादी विचारकों ने कानून के स्वरूप की चर्चा करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि राज्य न तो कानून का निर्माता है और न ही उससे उच्च है। इन विचारकों के अनुसार, राज्य कानून के निर्माता नहीं बल्कि राज्य सिर्फ अन्वेषण या घोषणा करने वाली संस्था है। इसे उच्च समझना भ्रान्त कल्पना है और इसके आधार पर राज्य को प्रभुसत्ता मानना यथार्थ सत्य नहीं है। Krabbe के अनुसार, कोई नियम कानून के रूप में इस कारण मान्य नहीं होता है कि वह राज्य का आदेश है या राज्य ने उसे बनाया है, बल्कि वह इसलिए मान्य होता है कि समाज में वह न्यायोजित समझा जाता है। उदाहरण के लिए, चोरी या मानव-हत्या इसलिए अपराध नहीं है कि राज्य ने अपने आदेश द्वारा ऐसा करना निषेध किया है बल्कि कानून से उच्च समझना भ्रान्त कल्पना है और इसके आधार पर राज्य को प्रभुसत्ता-सम्पन्न मानना यथार्थ एवं सत्य नहीं है।

3. अन्तर्राष्ट्रीयता के दृष्टिकोण से : एकलवाद पर बहुलवाद का अन्तिम प्रहार अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से है। एकलवादी सिद्धान्त के अनुसार, राज्य बाह्य रूप से स्वतन्त्र है और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उसकी सम्प्रभुता निरंकुश तथा अविभाजित है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून या समझौते राज्य की सीमा को सीमित नहीं कर सकते। लेकिन, बहुलवादियों ने इस तथ्य का खण्डन किया है। उनका कहना है कि राज्य की सम्प्रभुता अन्तर्राष्ट्रीय कानून, राज्यों के पारस्परिक समझौते तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा सीमित है। यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय कानून के पीछे-पीछे कोई शक्ति नहीं है फिर भी जनमत प्रचलित रीति-रिवाजों, जनत्रुटियों आदि के प्रभाव से राज्य उसके उल्लंघन का जल्द निवारण नहीं कर सकते।

आज U.N.O. के संगठन से अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में राज्य को अपनी सम्प्रभुता का परित्याग करना ही पड़ता है जिसके चलते सम्प्रभुता असीमित, निरंकुश तथा अविभाज्य नहीं रह गयी है। 
आलोचनाएँ : बहुलवादियों ने जिस दृष्टिकोण से एकलवाद पर प्रहार किया है। आलोचकों ने उन्हीं सब दृष्टिकोण से बहुलवाद की कटु अलोचना की है।

1. संघ स्वशासन के दृष्टिकोण मे : आलोचकों का कहना है कि बहुलवादी सम्प्रभुता के अद्वैतवादी सिद्धान्त के भाव को ठीक से नहीं समझते। 'Herol' (हेरोल) तथा कुछ समर्थकों को छोड़कर सम्प्रभुता के परम्परागत समर्थकों में से किसी ने राज्य को निरंकुश अथवा असीमित नहीं बतलाया है। Bonda Hobbes, Benthan, Austin आदि विचारकों ने राज्य की वास्तविक शक्ति को सीमित ही बताया है। इन्होंने यह भी कहा है कि राज्य की आलोचना करना या विरोध करना अनैतिक नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी सम्प्रभुता भाज्य है! E. Barker ने कहा है कि "विभिन्न सामाजिक संस्थाओं में आपस में सामंजस्य और संतुलन स्थापित करने का कार्य राज्य ही कर सकता।" बहुलवाद का अन्तिम निष्कर्ष अराजकतावाद या राज्यविहीन व्यक्तिवाद है। बहुलवादी विभिन्न संघों के बीच सम्प्रभुता का विभाजन करना चाहते हैं, लेकिन सम्प्रभुता नष्ट हो गया तो समाज में अशांति और अव्यवस्था हो जायेगी।

यद्यपि, बहुलवादी सर्वशक्तिमान राज्य का विरोध करते हैं, फिर भी अन्त में वे राज्य की सर्वोपरिता को स्वीकार कर लेते हैं। सम्प्रभुता के विभाजन करने के बाद सहयोग तथा संतुलनस्थापित करने का कर्तव्य सौंपने के इच्छुक हैं। कार्य राज्य तबतक नहीं कर सकता जबतक उसे कानून के क्षेत्रों में सर्वोच्च सत्ता प्राप्त न हो।

2. कानूनी दृष्टकोण से : बहुलवादियों की आलोचना इस दृष्टि से भी की जाती है कि Dugvit और Krabbc जैसे बहुलवादी दार्शनिकों का कानून सम्बन्धी विचार गलत है। ये दार्शनिक कानून राजकीय सत्ता से स्वतंत्र, उच्चत्तर तथा अधिक प्राचीन न मानते हैं, किन्तु कानून को राज्य से उच्च मानना सही नहीं है! कोई भी नियम समाज में तबतक प्रभावशाली नहीं हो पाता जबतक राज्य द्वारा उसे कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं हो जाता। 

3. अन्तर्राष्ट्रीयता के दृष्टिकोण से : अन्तर्राष्ट्रीयता के आधार पर बहुलवादियों द्वारा अद्वैतवादी सम्प्रभुता का विरोध त्रुटिपूर्ण है। यह ठीक है कि राज्यों पर अन्तर्राष्ट्रीय कानून की सीमाएँ हैं, लेकिन इन सीमाओं को कोई वैधिक मान्यता प्राप्त नहीं है। अतः राज्य की बाह्य सम्प्रभुता सिद्धान्ततः अक्षुण्ण है। यद्यपि व्यवहार में उस पर कुछ प्रतिबन्ध हैं। 

निष्कर्ष : उपर्युक्त आलोचनाओं के आधार पर यही नहीं कहा जा सकता कि बहुलवादी सिद्धान्त निरर्थक है और उसका कोई महत्त्व नहीं है। बहुलवादी दर्शन में सत्य का बहुत अंश है।
वह राज्य की सर्वोच्चता और सर्वोपरिता पर प्रहार करता है। समाज में समूह और संघों को मान्यता देता है और इसका महत्त्व स्वीकार करता है। वह एकतंत्र अथवा राजतंत्र का अन्त करता है तथा स्थानीय जीवन का पूर्णधार चाहता है।

अन्त में Gettelle के शब्दों में निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि

“The pluralist theory is a timely protest against the rigid and the dogamatic legalism associated with the Austin as a theory of sovereignty."

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