Describe the social and economic conditions of the people of Indus valley. (सिन्धु घाटी के निवासियों की सामाजिक तथा आर्थिक अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।)
सामाजिक अवस्था:- खुदाइयों से प्राप्त अवशेषों के आधार पर सिन्धु घाटी सभ्यता के सामाजिक जीवन के विषय में कुछ अन्दाजा लगाया जा सकता है। सिन्धु घाटी का समाज तीन वर्गों में विभक्त था। इसके विषय में पूर्ण जानकारी हमें नहीं है, परन्तु चूँकि तत्कालीन विश्व सभ्यताओं, यथा-मिस्र, सुमेर इत्यादि में समाज मुख्यतः तीन श्रेणियों में बँटा हुआ था। अतः हम अनुमान कर सकते हैं कि यहाँ भी वैसी स्थिति रही होगी। प्रथम वर्ग में शासक वर्ग, योद्धा, पुरोहित इत्यादि होंगे। दूसरे वर्ग में व्यापारी, लिपिक एवं अन्य कुशल कारीगरों को रख सकते हैं। तीसरे वर्ग में कृषक एवं अन्य श्रमजीवी रहे होंगे। दो भवनों के अवशेषों को ही देखने से लगता है कि मानो सिन्धु समाज में दो ही वर्ग रहे होंगे। परन्तु मध्य वर्ग का होना किसी भी सभ्यता में निश्चित है। अतः यह भी अवश्य ही रहा होगा। समाज की ईकाई परिवार रही होगी, परन्तु यह व्यवस्था एकात्मक थी या संयुक्त यह जानकारी नहीं है। परिवार पितृसत्तात्मक था या मातृसत्तात्मक, यह कहना कठिन है, यद्यपि कुछ विद्वान इसे मातृसत्तात्मक मानते हैं।
सिन्धु घाटी के निवासियों के खान-पान, वस्त्र आभूषण, फर्नीचर, आमोद-प्रमोद के साधन एवं अंत्योष्टि क्रिया के विषय में हमें पर्याप्त जानकारी है। यहाँ के निवासी सामिष और निरामिष दोनों प्रकार के भोजन करते थे। चावल, जौ, गेहूँ और खजूर का उपयोग मुख्य भोजन पदार्थ के रूप में किया जाता था। दूध, सब्जी, फल, माँस-मछली का भी प्रयोग होता था। सूती एवं ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्र उपयोग में लाये जाते थे। मर्द एवं औरत दोनों आभूषण के शौकिन थे। उनके कुछ प्रमुख आभूषण इस प्रकार के थे-अंगूठी, हार, बाली, करधनी इत्यादि। आभूषणों को बनाने में सोने-चाँदी, बहुमूल्य पत्थर आदि का इस्तेमाल किया जाता था। हड्डी एवं पको मिट्टी के भी आभूषण बनते थे। विभिन्न प्रकार के केश-विन्यास रखने की प्रथा थी। ऐनक-कंधी का प्रयोग वे जानते थे। होठ एवं नाखून रंगने का भी रिवाज था। वे घरों में मिट्टी एवं धातु के. बने बर्तन का इस्तेमाल करते थे। सामान ढोने के लिए टोकड़ियाँ बुनी जाती थीं। घर में चटाइयों, बेंचों, कुर्सियों, पलंगों, चारपाइयों आदि का भी प्रयोग होता था। रोशनी के लिए सम्भवतः चर्बीयुक्त दीप जलाए जाते थे। आमोद-प्रमोद के विभिन्न साधन थे। जैसे-पशु-पक्षियों का शिकार करना, शतरंज खेलना, गोलियाँ खेलना। छोटे बच्चे मिट्टी के खिलौने से खेला करते थे। खुदाई में पर्याप्त संख्या में ऐसे खिलौने मिले हैं।
सिन्धु घाटीवाले अपने मृतकों की अन्त्येष्टि तीन प्रकार में करते थे-
(1) आंशिक समाधिकरण (Partial Burial):- इस विधि के अनुसार मृत्यु के पश्चात शव को कुछ समय के लिए किसी खुले स्थान पर रख दिया जाता था। पशु पक्षियों के भोजन के बाद जो अवशेष बचा रहता था उसे ही समाधिस्थ कर दिया जाता था।
(2) पूर्ण समाधिकरण (Complete Burial):- इस विधि में सम्पूर्ण शव को जमीन में दफना दिया जाता था। शवों के साथ उनके प्रयोग की वस्तुएँ भी रख दी जाती थीं।
(3) दाहकर्म (Cremation):- इस व्यवस्था के अन्तर्गत शव को पूर्णरूपेण जला दिया जाता था। कभी-कभी भग्नावशेष को दफना दिया जाता था। यह तीनों प्रणालियाँ सिन्धु घाटी में प्रचलित थी, परन्तु यह कहना कठिन है कि किस वर्ग के लोग कौन-सी विधि अपनाते थे।
आर्थिक व्यवस्था:- सिन्धु घाटी के निवासियों की आर्थिक दशा काफी उन्नत थी। आर्थिक सम्पन्नता के चलते ही वे लोग सुन्दर भवनों का निर्माण कर सकते थे तथा विभिन्न प्रकार के कला-कौशल को प्रश्रय दे सके। कृषि उनके आर्थिक जीवन का मुख्य आधार था। प्राचीनकाल में यह क्षेत्र काफी उर्वर था। यहाँ काफी वर्षा होती थी तथा सिन्धु घाटी में आनेवाली नील-नदी के बाढ़ के बाद सुगमता से खेती कर लेते थे। उसी प्रकार सिन्धु घाटी के निवासी भी इस बाढ़ से लायी गयी भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए सुगमतापूर्वक करते थे। नदियों से सिंचाई का भी काम लिया जाता था। कृषि के मुख्य औजार क्या थे इसका निश्चित ज्ञान हमें नहीं है। सम्भवत: हल और बैल का प्रयोग कृषि कार्य के लिए किया जाता था। इनके मुख्य उपज गेहूँ, जौ, चावल, कपास इत्यादि थे। इनके अतिरिक्त वे मटर तेल, विभिन्न आकार की साग-सब्जियाँ एवं फल भी उपजाया करते थे।
खेती के साथ-साथ पशुपालन भी इनकी जीविका का मुख्य साधन था। उनके पालतू पशुओं में बैल, भैंस, बकरी, भेड़ और सुअर थे। कूबड़वाले साँढ़ भी सम्भवतः पाले जाते थे। कुत्ते, बिल्ली, गधे एवं ऊँटों का भी उन्हें पता था। अन्य पशुओं में हाथी और गैंडे भी प्रमुख हैं। घोड़े का ज्ञान उन्हें नहीं था,, यद्यपि कुछ विद्वानों का मत है कि सिन्धु घाटी के निवासियों को घोड़े का भी ज्ञान था। बड़े जानवरों का प्रयोग सामान ढोने या बैलगाड़ियों में आवागमन के लिए किया जाता होगा। कुत्तों का उपयोग आखेट में किया जाता था। गाय मुख्यतः दूध के लिए पाली जाती थी। इस काल में गाय का कोई धार्मिक महत्त्व नहीं था।
कृषि और पशुपालन के अलावा सिन्धु घाटी के लोग विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में भी दक्ष थे। उनके प्रमुख व्यवसायों में वस्त्र बुनना, ईंटें बनाना, खिलौने बनाना, कृषि एवं अन्य घरेलू प्रयोग के लिए औजार तैयार करना आदि प्रमुख हैं। उत्खननों से इन शिल्पों एवं व्यवसायों की उन्नत दशा का पता हमें लगता है। इसके साथ-साथ अन्य व्यवसाय भी प्रचलित थे। जैसे-नाव बनाना, निर्माण करना, कपड़े सीना। मुहरें बनाना उनका एक विशिष्ट व्यवसाय था। खुदाई में बहुत बडी संख्या में लिपियुक्त मुहरें मिली हैं। इन्हें अगर पढ़ा जा सके तो सिन्धु घाटी की सभ्यता पर नया प्रकाश पड़ सकता है।
कृषि पशुपालन एवं विभिन्न व्यवसायों के साथ-साथ इस सभ्यता ने व्यापार के क्षेत्र में भी काफी प्रगति की। वे जल तथा स्थल दोनों मार्गों से व्यापार करते थे। सिन्धु एवं इसकी सहायक नदियों के द्वारा व्यापार काफी सुगमता से होता था। स्थल मार्ग का व्यापार बैलगाड़ियों द्वारा होता था। आन्तरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार के व्यापार के प्रसार का प्रमाण मिलता है। दूसरी जगह से कच्चा माल मंगाकर तैयार की गयी वस्तुएँ भेजते थे। उदाहरणस्वरूप वे तांबा राजस्थान से, सोना मैसूर से, टीन राजस्थान, अफगानिस्तान और ईरान से, बहुमूल्य पत्थर कश्मीर, काठियावाड़, राजस्थान, अफगानिस्तान आदि जगहों से मँगाते थे। इससे पता चलता है कि इन जगहों से सिन्धुवासियों का व्यापारिक सम्बन्ध था। मिस्र, मेसोपोटामिया और मध्य एशिया के विभिन्न जगहों से भी इनके व्यापारिक सम्बन्ध थे। परन्तु उन्हें मुद्रा या सिक्के का ज्ञान नहीं था। सम्भवतः व्यापार विनिमय द्वारा होता था। माप-तौल के निश्चित नियम थे। ऐसा खुदाई में प्राप्त घटखरों से पता चलता है। इस प्रकार सिन्धु घाटी के निवासियों की आर्थिक दशा काफी सुदृढ़ थी।
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