Discuss the theories of the origion of tribal religion. ( जनजातीय धर्म की उत्पत्ति के सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।)

धर्म की उत्पत्ति कैसे हुए इस सम्बन्ध में विद्वानों के बीच मतभेद पाया जाता है। विद्वानों ने इसकी चर्चा अपने-अपने ढंग से की है और इससे सम्बन्धित सिद्धांत प्रस्तुत किया है, इसकी अलग-अलग चर्चा निम्नरूप से की जा सकती है। . जनजातीय


(1) आत्मवाद- इस सिद्धान्त का प्रतिपादन टायलर ने किया है। इनके अनुसार धर्म का मूल स्रोत पूर्वजों की आत्माओं में विश्वास है। जनजातियों का विश्वास है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहता है। यह विशेष स्थान या पदार्थ में प्रविष्ट होकर मानवीय क्रियाओं को संचालित करती रहती है या प्रेतात्माओं के रूप में व्यक्ति की सफलता या असफलता का निर्धारण करती है। इन आत्माओं को प्रसन्न रखना तथा इनके प्रति भय मिश्रित श्रद्ध को व्यक्त करने के रूप में ही धर्म की उत्पत्ति हुई।

टायलर के अनुसार यदि मानव ने जब अपने को स्वप्न में स्वछन्द विचरण करने हुए पाया, अनेक पूर्वजों के दर्शन किये, जंगल और पहाड़ों में अपनी ही आवाज की प्रतिध्वनि सुनी, परछाई को अपने समान हिलते-डुलते पाया और व्यक्ति को मरते देखा तो उसे यह विश्वास होने लगा कि उसके अतिरिक्त कोई ऐसी चेतन शक्ति है जो अशरीरी होते हुए भी शक्तिमान है। इसी को उसने आत्मा की संज्ञा दी। उनका विश्वास है कि शरीर में जबतक आत्मा रहती है, तबतक व्यक्ति सक्रिय रहता है। इसके निकल जाने के बाद वह निर्जीव हो जाता है। परन्तु एक रहस्य यह था कि नींद में आदमी मृत के समान होता और स्वप्न देखता है, परन्तु मरता नहीं है। इसलिए उसने दो आत्माओं की कल्पना की जिसे मुक्त आत्मा और शरीर आत्मा कहा जाता है। मुक्त आत्मा जो शरीर से निकल कर पूर्वजों से मिल सकती है और पुनः शरीर में प्रवेश कर जाती है। जबकि शरीर आत्मा के निकलने के बाद मृत्यु हो जाती है। मुक्त आत्मा को उसने साँस और परछाई से जोड़ा और शरीर आत्मा खून और सिर से। आदि मानव ने शरीर आत्मा को अनश्वर माना क्योंकि यह स्वप्न में दिखता था। इस अनिश्चितता के कारण आत्मा ने शरीर को छोड़ा है या नहीं बाद में दो प्रकार के शेष कृत्यों को जन्म दिशा, जिसे हरा कृत्य (Green funeral) तथा सूखा कृत्य (Dry funeral) कहा जाता है। हरा कृत्य मृत्यु के ठीक बाद होता है और सूखा कृत्य मृत्यु के कुछ रोज बाद होता है जब मृतक के लौटने की कोई संभावना नहीं रहती है। हो, टोडा तथा कोटा जनजाति में ये दोनों शेष कृत्य (Funeral) करने की प्रथा है।

टायलर के अनुसार इन आकारहीन शक्तियों के प्रति भय और श्रद्धा की भावना ने ही आदिम धर्म को जन्म दिया। मनुष्यों के नियंत्रण में शक्तियाँ नहीं रहती है। इसलिए उनको खुश रखने के लिए उनकी पूजा करनी पड़ती है। यह एक बहु ईश्रवादी धारणा है। टायलर के अनुसार विकास के चलते धीरे-धीरे धर्म में एकेश्वरवादी धारणा का विकास हुआ।

परन्तु टायलर के इस सिद्धांत की आलोचना की जाती है। (1) टायलर ने आदिम मनुष्य को जितना दार्शनिक एवं विवेकशी बना दिया है उतना न तो वह है, और न कभी था। (2) टायलर के उद्विकासीय क्रम बहुईश्वरवाद से एकेश्वाद की पुष्टि भी नहीं हो सकती। (3) धर्म एक सामाजिक तथ्य है। अतः इसकी उत्पत्ति में सामाजिक कारकों का भी हाथ रहा है। केवल आत्मा में विश्वास से ही धर्म की उत्पत्ति स्वीकार करना सामाजिक तथ्यों की अवहेलना है।

2. जीव सत्तावाद या मानावाद - धर्म का मौलिक स्रोत जनजातियों में यह विश्वास होना था कि प्रत्येक वस्तु में जीवन और चेतना है। इस आधार पर प्रीयस ने जनजातीय धर्म को जीवित सत्तावाद के दृष्टिकोण से स्पष्ट किया। इनके अनुसार आदिवासी प्रत्येक पदार्थ में एक जीवित सत्ता या चेतना का अनुभव करते थे। इसी विश्वास के चलते आदिवासियों ने इस चेतन शक्ति की पूजा करना शुरू कर दिया इसी विश्वास के आधार पर बाद में धर्म का विकास हुआ।

इसी से मिलती-जुलती धारणा मैरेट ने दी है जिसे वे मानावाद कहते हैं। इनके अनुसार धर्म का उदय ऐसी अलौकिक शक्ति से होता है जो अवैयक्तिक, अभौतिक और अमूर्त होती है तथा संसार के सभी सजीव एवं निर्जीव पदार्थों में पायी जाती है। यह ज्ञानेन्द्रिय की पहुँच से परे होती है। किन्तु, मनुष्य के विचारों, क्रियाओं तथा उसके चारों ओर विद्यमान पदार्थ की शारीरिक या प्राकृतिक शक्ति के रूप में अभिव्यक्ति होती है। इसी विश्वास को मैरेट ने जीव सत्तावाद या मानावाद कहा है। मानावाद नामकरण की व्युप्ति मूलानेशिया निवासियों द्वारा ऐसी शक्ति के लिए प्रयुक्त माना शब्द से हुई है। मजूमदार के अनुसार इस जनजाति में लोगों के बारे में ऐसा ही विश्वास है। उत्तरी अमेरिका में इसे ओरेण्डा तथा कहीं-कहीं इसे अरेन या ओकुआ भी कहा जाता है।

इस सिद्धान्त की आलोचना भी उसी आधार पर की जाती है जिसपर टायलर की आलोचना की गई है। अर्थात् इस सिद्धान्त में भी आदिम मानव को जितना विचारक एवं तर्कग्राही माना गया है उतना वह है नहीं।

3. प्रकृतिवाद- इस सिद्धांत का प्रतिपादन मैक्समूलर ने किया है। इनके अनुसार आदिम धर्म की उत्पत्ति प्राकृतिक तथ्यों की पूजा-आराधना से हुई। प्राकृतिक शक्तियों के बीच आदिम मानव का सम्पूर्ण जीवन व्यतीत होने के कारण उनके लिए प्रत्येक प्राकृतिक वस्तु एक रहस्य थी। उनके मन में प्रकृतिक तथ्यों के प्रति भय और श्रद्धा का भाव उत्पन्न हुआ। इन्होंने प्रकृति को भी एक चेतन या जीवित सत्ता के रूप में देखना आरम्भ कर दिया। कुछ विचारकों के अनुसार प्राकृतिक तथ्यों के प्रति भय, श्रद्धा और प्रेम उनके अविकसित मस्तिष्क और दोषपूर्ण भाषा का परिणाम थी। उदाहरणार्थ, सूर्योदय या सूर्यास्त हो रहा है, वर्षा आ रही है, आँधी आ रही है, पेड़ फल और फूल उत्पन्न करते हैं आदि के रूप में आदिम अपने विश्वास व्यक्त करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि आदिमों ने प्राकृतिक तथ्यों में एक जीवित सत्ता की कल्पना की । इसी को प्रसन्न रखने के लिए और उसे अपने लिए उपयोगी बनाने के लिए ही आदिमों ने इनकी पूजा आरम्भ की । बाद में इसी आधार पर धर्म का उद्भव और विकास हुआ। अपने इस कथन की पुष्टि में मैक्समूलर ने मिस्र और कुछ अन्य स्थानों पर की गई खुदाई से प्राप्त अवशेषों का उदाहरण भी दिया है जिनके अनुसार इन स्थानों में सबसे बड़े देवता का नाम 'रा' अर्थात् सूर्य था।

इस सिद्धान्त की आलोचना विद्वानों ने की है। 
(1) मजूमदार तथा मदान के अनुसार प्रकृति की शक्तियों की पूजा बहुत आम है, परन्तु यह कहना कि धर्म की उत्पत्ति इन्हीं से हुई, सिद्ध नहीं किया जा सकता।
( 2 ) दोषपूर्ण भाषा के प्रयोग से प्राकृतिक पदार्थों को सजीव समझने की बात को सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं है।
(3) मैक्समूलर ने जनजातियों को अधिक तार्किक और दार्शनिक बना दिया है जो उचित नहीं है।

(4) प्रकार्यवादी सिद्धांत- धर्म की उत्पत्ति के प्रकार्यवादी सिद्धान्त रेडक्लिफ ब्राउन तथा मैलिनावक्सी ने प्रस्तुत किया। मैलिनावक्सी के अनुसार धर्म का सम्बन्ध मानव की भावनात्मक अवस्थाओं से है जो तनाव की अवस्थाएँ होती हैं। इसका प्रयोग मछली मारने वाली जनजातियाँ अपनी आर्थिक गतिविधि में करती हैं। क्योंकि उसमें अनिश्चय, डर एवं चिन्ता होती है। अगर भावनाएँ लम्बी अवधि तक रहती हैं तो सभी क्रियाएँ विफल हो जाती हैं। मनुष्य एक क्रियाशील व्यक्ति होता है। भावनात्मक विक्षिप्तावस्था में उसके लिए सामान्य क्रिया करना संभव नहीं होता। ऐसी स्थिति में धर्म इन तनावों को दूर करता है और व्यक्ति के जीवन में मानसिक और मनोवैज्ञानिक सन्तुलन एवं स्थिरता पैदा करता है।

रेडक्लिफ ब्राउनका मत भिन्न है। इनके अनुसार धर्म का काम भय का तनाव को दूर करना नहीं है, बल्कि मानव मन में धर्म के प्रति निर्भरता पैदा करना है। समूह एक व्यक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। मानव मन में समूह के प्रति आबद्ध रहने की भावना धर्म से जुड़ी अलौकिकता भरती है। साथ ही समूह के नियमों के प्रति मानव मन में आनुगत्य पैदा करता है। इसलिए धर्म का काम समाज के अस्तित्व को कायम रखने के लिए व्यक्तियों में उचित भावना पैदा करना है। रेडक्लिफ ब्राउन दोनों के विचारों में दुर्खीम के धर्म सम्बन्धी सिद्धान्त की

मैलिनोवस्की तथा झलक पायी जाती है। दुखम ने अरूण्टा जनजाति में मौजूद टोटम की पूजा को धर्म का आरम्भिक स्वरूप कहा है। इनके अनुसार इसका आरम्भ समूह और समाज का बनाये रखने के लिए ही हुआ। अन्य विद्धान्तों की तरह प्रकार्यवादी सिद्धान्त की भी आलोचना विभिन्न आधारों पर की है।
(1) मैलिनोवस्की का निष्कर्ष ट्रोवियण्डा द्वीप के निवासियों की जीवन पर आधारित था। एक जनजाति के अध्ययन पर आधारित निष्कर्ष को सभी समाजों के संदर्भ में लागू करना वैज्ञानिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं है।
(2) रेडक्लिफ ब्राउन तथा मैलिनोवस्की ने धर्म के केवल प्रकार्यात्मक पहलू को ही देखा है जबकि धर्म के अन्य पहलू भी हैं।

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