Define religion and discuss its importance in tribal ( धर्म की परिभाषा दें तथा जनजातीय समाज में इसके महत्त्व की विवेचना करें।) Or, Discuss the role of religion in tribal society. अथवा, (जनजातीय समाज में धर्म की भूमिका की विवेचना करें।) Or, Discuss the function of religion in tribal society. अथवा, (जनजातीय समाज में धर्म के कार्यों की विवेचना करें।)
संस्कृत भाषा के 'धृ' शब्द से धर्म की उत्पत्ति हुई। 'धृ' शब्द का अर्थ धारण करना है। इस प्रकार शाब्दिक रूप से धर्म शब्द का अर्थ सभी जीवों के प्रति मन में दया धारण करना है। धर्म के अर्थ को और स्पष्ट करने हेतु विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से धर्म को पारिभाषित किया है। कुछ विद्वानों और दी गई परिभाषाएँ इस प्रकार हैं
टेलर के अनुसार- " धर्म का अर्थ किसी आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास है।
दुर्खीम के अनुसार- " धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों और आचरणों की समग्रता है, जो इनपर विश्वास करने वालों के एक नैतिक समुदाय के रूप में संयुक्त करती है।"
फ्रेजर के अनुसार- " धर्म से हमारा तात्पर्य मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की भक्ति या आराधना से है, जिनके बारे में व्यक्तियों का विश्वास है कि वे प्रकृति और मानव जीवन को नियंत्रित करती हैं और उनको निर्देश देती हैं। "
मजूमदार तथा मदन के अनुसार-“धर्म किसी अलौकिक और अतीन्द्रिय शक्ति के भय का एक मानवीय प्रत्युत्तर हैं यह व्यवहार की अभिव्यक्ति या परिस्थितियों से किये जाने वाले अनुकूलन का वह रूप है जो अलौकिक शक्ति की धारणा से प्रभावित होता है। "
जॉनसन के अनुसार- “धर्म कम या अधिक सीमा तक अधिप्राकृतिक तत्त्वों, शक्तियों, स्थानों और आत्माओं से सम्बन्धित विश्वासों तथा आचरणों की एक संगठित व्यवस्था है। " उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि अलौकिक शक्तियों से सम्बन्धित विश्वासों की उस व्यवस्था को धर्म कहा जाता है, जो मानव अनुभवों से प्रभावित होते हुए भी मानवीय शक्ति से परे किसी रहस्यपूर्ण शक्ति का बोध कराती है।
धर्म का महत्त्व (Importance of religion):
धर्म एक अलौकिक शक्ति का नाम है, जिसका प्रभाव मनुष्य की जीवन पर चारों ओर से पड़ता है। धर्म का महत्त्व बताते हुए रॉडिन ने कहा है कि “धर्म केवल मनुष्य के जीवन और लक्ष्य का चिन्तन मात्र ही नहीं है, बल्कि यह जीवन मूल्यों को सुरक्षित रखने का साधन भी है। " इसी प्रकार डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी धर्म के महत्व की चर्चा करते हुए कहा है कि “ईश्वर में मानव प्रकृति अपनी पूर्ण संतुष्टि प्राप्त करती है।" धर्म समाज में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिसके वजह से मनुष्य में अनेक तरह के सामाजिक तथा मानसिक गुणों का विकास होता है। समाज में धर्म के महत्त्व की चर्चा निम्न रूप से की जा सकती है
(1) पवित्रता की भावना का विकास- व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में पवित्रता की भावना का विकास करना और अपवित्रता तथा गलत कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाना धर्म का मुख्य काम है। समाज में केवल वही कार्य किये जाते हैं जो धार्मिक दृष्टिकोण से शुद्ध और पवित्र होते हैं। परिणामस्वरूप सामाजिक व्यवस्था कायम रहती है।
(2) सुरक्षा की भावना का विकास- धर्म में ऐसा विश्वास किया जाता है कि व्यक्ति सं परे भी कोई शक्ति है जो सर्वशक्तिमान है और संकट के समय यह शक्ति व्यक्ति को संकट से मुक्ति दिला सकती है। इस तरह की भावना से व्यक्ति सुरक्षा का अनुभव करता है।
(3) समाजीकरण- धर्म मनुष्य में दया, स्नेह, सहिष्णुता, सद्भाव आदि सामाजिक गुणों का विकास करता है, जिसके चलते समाज की व्यवस्था में भक्ति एवं क्षमता का विकास होता है। व्यक्ति के व्यवहारों तथा आचरणों पर नियंत्रित लगाकर धर्म सामाजिक नियंत्रण स्थापित करता है।
(4) सामाजिक समस्याओं का समाधान- समाज में अनेक संगठन एवं संस्थाओं का जन्म हुआ है जो मानव जीवन में पायी जाने वाली समस्याओं का निराकरण करती है। धर्म व्यक्ति में आत्मविश्वास को बढ़ाता है। फलतः व्यक्ति धर्म के माध्यम से समस्याओं से छुटकारा पाता है। -
(5) सद्गुणों का विकास- धर्म पर विश्वास होने के कारण अधिकांश व्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपने जीवन का धार्मिक आदर्शों के अनुरूप ढालने का प्रयास करते हैं। फलत: उनमें अनेक मानवीय गणों का विकास होता है।
(6) स्थापना- धर्म का अपार अलौकिक शक्ति में विश्वास है। इसलिए व्यक्ति धार्मिक आदर्शों एवं मूल्यों की अवहेलना नहीं कर पाता । फलतः समाज में शांति व्यवस्था कायम रहती है।
(7) मानसिक तनावों से मुक्ति में सहायक- दैनिक जीवन में अनेक बार ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि व्यक्ति को क्रोध, घृणा, तनाव, संघर्ष आदि परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। अधिक समय तक इन परिस्थितियों के बने रहने पर व्यक्ति परेशान हो जाता है और उसका व्यवस्थित रूप से कार्य करना संभव नहीं हो जाता। इस परिस्थिति से छुटकारा पाने के लिए वह ईश्वर से प्रार्थना करता है, अलौकिक शक्ति के सामने आत्मसमर्पण करता है। ईश्वर के सम्मुख सुख-दुख: प्रकट करने के बाद वह राहत महसूस करता है और मानसिक तानव से उसे छुटकारा मिलता है।
(8) नैतिकता को कायम रखने में सहायक- धार्मिक नियमों में नैतिकता का पुट होता है। इसलिए नैतिकता को बनाये रखने में धर्म सहायक होता है।
(9) सामाजिक मूल्यों तथा मान्यताओं का रक्षक- पाप-पुण्य तथा स्वर्ग-नरक की कल्पना द्वारा लोगों में भय उत्पन्न कर धर्म सामाजिक नियमों को मानने के लिए प्रेरणा प्रोत्साहन तथा बाध्यता पैदा करता है। फलत: सामाजिक मूल्यों एवं मान्यताओं की रक्षा होती है।
(10) समाज में एकता पैदा करना- धर्म समाज में एकता की स्थापना करता है। दुर्खीम का कहना है कि धर्म उन सभी लोगों को एकता के सूत्र में बाँधता है जो उनमें विश्वास करते हैं। सामुदायिक तथा धार्मिक दंगों के समय एवं धार्मिक त्योहारों के समय एक धर्म के अनुयायियों में एकता देखने को मिलती है। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि एकता की स्थापना में धर्म महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि धर्म व्यक्ति को समाज के योग्य बनाकर, अनिश्चितता के समय मदद कर, निराशा में धैर्य बँधाकर एवं व्यक्तियों के नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों का विकास कर व्यक्ति के विकास में मदद करता है।
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