धम्म का स्वरूप
धम्म' संस्कृत के धर्म शब्द का प्राकृत रूप है। अशोक ने इसका प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। इस विषय पर विद्वानों के बीच काफी मतभेद है। बहुत से विद्वान धम्म और बौद्धधर्म में कोई फर्क नहीं मानते। अतः प्रारंभ में ही यह कह देना आवश्यक है कि धम्म और बौद्धधर्म दोनों अलग-अलग बातें हैं। बौद्धधर्भ अशोक का व्यक्तिगत धर्म था। लेकिन उसने जिस धम्म की चर्चा अपने अभिलेखों में की है वह उसका सार्वजनिक धर्म था तथा विभिन्न धर्मों का सार था। यह अलग बात है कि बौद्धधर्म की कई विशेषताएँ भी उसमें मौजूद थीं। अशोक ने अपने अभिलेखों में कई स्थान पर धम्म (धर्म) शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु भाबरु अभिलेख को छोड़कर (जहाँ उसे बुद्ध, धम्म और संघ में अपना विश्वास प्रकट किया है) उसने कहीं भी धम्म का प्रयोग बौद्धधर्म के लिए नहीं किया है। बौद्ध धर्म के लिए 'सर्द्धम' या 'संघ' शब्द का प्रयोग किया गया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि अशोक का धम्म बौद्धधर्म नहीं था क्योंकि इसमें चार आर्य सत्यों, अष्टांगिक मार्ग तथा निर्वाण की चर्चा नहीं मिलती है। डॉ० रोमिला थापर ने ठीक ही कहा है- "Dhamma was Ashoka's own invention. It may have been borrowed from Buddhist and Hindu thought, but it was in essence as attempt on the part of the king to suggest a way of life which was both practical and conveninent, as well as being highly moral..........If his policy of Dhamma had been merely a recording of Buddhist principles, Ashoka would have stated so quite openly, since he never sought to hide support for Buddhism.”
धम्म की विशेषताएँ या विविध पहलू
प्रमुख रूप से अशोक के धम्म के दो पहलू हैं-व्यावहारिक और सैद्धांतिक। व्यावहारिक पहलू के भी दो पक्ष हैं-स्वीकारात्मक और नकारात्मक। इसके अलावा इसके सामाजिक पहलुओं की भी चर्चा इतिहासकारों ने की है।
2. निषेधात्मक पहलू : धम्म के निषेधात्मक पहलू भी हैं जिनमें नैष्ठुर्य, ईर्ष्या, क्रोध और उग्रता से बचने के लिए कहा गया है।
3. सैद्धांतिक पहलू : अशोक के धम्म का सैद्धांतिक पहलू भी था। पशु जीवन की अवध्यता, धार्मिक सहिष्णुता, धर्ममंगल की श्रेष्ठता, धर्मदान का महत्त्व, पराक्रम की आवश्यकता, धम्म विषय तथा धर्म व्रत पालन आदि इसके प्रमुख सिद्धांत हैं। इसका वर्णन हमें अशोक के नवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें शिलाभिलेख में मिलता है।
4. सामाजिक पहलू : अशोक ने इस क्रम में धार्मिक सहिष्णुता, सामान्य स्थल पर निवास, बाह्य संयम और विभिन्न पंथ के अनुयायियों को एक-दूसरे के ग्रंथों को पढ़ने की सलाह दी। ऐसा करके उसने सामंजस्य पैदा करने की कोशिश की थी। यही उसके धम्म का सामाजिक पहलू था।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि अशोक का धम्म नैतिक कर्तव्यों और परोपकारी कार्यों की संहिता थी। इसमें व्यक्तिगत और सामाजिक गुणों का समन्वय था। इसके सिद्धांत सभी धर्म के लोगों को स्वीकार्य थे। 'धम्म जीवन का एक रास्ता था। इसके सार को उसने व्यक्तिगत अनुभवों तथा विभिन्न विचारकों की नैतिक शिक्षाओं से ग्रहण किया था। अशोक का धम्म सहिष्णुता के सिद्धांत पर आधारित था। इसके पालन के लिए उसने धर्म महामात्रों की नियुक्ति की थी, जिसका काम किसी खास धर्म के प्रचार में मदद देना नहीं था बल्कि सभी धर्म के लोगों को एक-दूसरे के विश्वास को चोट पहुँचाये बिना अपने धर्म के पालन में मदद करना था। अशोक के धम्म का आदर्श एक महान आदर्श था और इसी कारण उसे सम्राटों की श्रृंखला में सबसे ऊपर स्थान दिया जाता है। H. G. Wells ने अशोक के बारे में लिखा है-"उसके जैसा व्यक्ति सभी राष्ट्र और सभी समय में पैदा नहीं होता है बल्कि ऐसे लोगों का आगमन दुर्लभ होता है।"
धम्म की स्थापना के उद्देश्य
1. केन्द्रीय आधिपत्य को बनाये रखने के लिए : मौर्यकाल में शासन का केन्द्रीयकरण, कुशल अधिकारतंत्र, अच्छी संचार व्यवस्था और शक्तिशाली शासक के द्वारा यथासंभव किया जा चुका था। इस केन्द्रीय आधिपत्य को दो तरह से बनाये रखा जा सकता था। एक तो सैनिक शक्ति के द्वारा तथा राजा में देवत्व का आरोपण करके और दूसरा नवीन सारग्राही धर्म को अपनाकर। दूसरा रास्ता अधिक युक्तिसंगत था क्योंकि ऐसा करने से किसी एक वर्ग का प्रभाव कम होता और केन्द्र का प्रभाव बढ़ता। अशोक की यह नीति साररूप में वही थी जो लगभग अठारह शताब्दी बाद अकबर ने अपनायी थी, यद्यपि उसका रूप भिन्न था। कहने का तात्पर्य यह है कि केन्द्रीय आधिपत्य को बनाये रखने के उद्देश्य से धम्म का रास्ता अशोक ने अपनाया था।
2. सामाजिक एकता के लिए : मौर्य सम्राट ब्राह्मण विरोधी नहीं होते हुए भी नवीन धर्मों के प्रति ज्यादा झुकाव रखते थे। इन नवीन धार्मिक वर्गों ने सामाजिक विभाजन को प्रखर बना दिया तथा इसे बदली हुई आर्थिक परिस्थितियों से भी मदद मिली। व्यापार और व्यवसाय के विकास से एक नवीन वर्ग पैदा हुआ। व्यापारियों तथा निम्नवर्ग के लोगों को भी नवीन धर्म से ज्यादा सहानुभूति थी। इससे सामाजिक विभाजन और मजबूत हुआ। अशोक ने इसी सामाजिक विभाजन को खत्म करने तथा विभिन्न वर्गों के बीच उपजी खाई को पाटने के लिए धम्म का आविष्कार किया।
3. सांस्कृतिक एकता के लिए : इतना ही नहीं अशोक की जनता के बीच सांस्कृतिक मतभेद भी था। अशोक के विजित प्रदेशों और कई छोटे-छोटे राज्यों के विलय ने सांस्कृतिक मतभेद की समस्या को और भी गहन बना दिया था। इतना भिन्नता रखनेवाली जनता में एकता बनाये रखने के लिए एक समान आदर्श की जरूरत थी। इसी उद्देश्य से अशोक ने एक जोड़नेवाली शक्ति के रूप में धम्म की नीति का अवलंबन किया। इससे उसे अपने साम्राज्य को दृढ़ करने में काफी मदद मिली। कई अन्य सभ्यताओं के इतिहास में भी हमें इसके उदाहरण मिलते हैं। जैसे सैक्सनों को शार्लमाँ ने जीतकर ईसाई धर्म का प्रयोग एक जोड़नेवाली शक्ति (Cementing force) के रूप में किया था। अशोक का धम्म भी कुछ इसी तरह का एक प्रयास था।
4. जनता की नैतिक उन्नति एवं उसके सुख हेतु : अशोक ने चक्रवर्ती धर्मराज्य के आदर्शों को अपनाते हुए जनसाधारण के नैतिक उत्थान के लिए अपने धम्म का प्रचार किया ताकि वे ऐहिक सुख और इस जन्म के बाद स्वर्ग प्राप्त कर सकें। इसमें संदेह नहीं कि अशोक सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का नैतिक पुनरुद्धार करना चाहता था और इसके लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहा। इसी उद्देश्य से उसने जनता को धम्म के पालन के लिए प्रेरित किया और यह उसकी निजी कल्पना थी।
धम्म प्रचार के उपाय
अशोक ने धम्म के लिए जो कुछ भी किया उसकी चर्चा सप्तम शिलाभिलेख में वृहत् रूप से मिलती है। धम्म प्रचार के लिए उसके द्वारा किये गये उपाय निम्नलिखित हैं
1. धर्म के प्रचार हेतु उसने धर्म-श्रवण का प्रचलन किया। उसने उच्च अधिकारियों और आम लोगों के लिए अलग घोषणाएं की। इसके द्वारा उसने अपनी इच्छाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की, जिससे धर्मवृद्धि और प्रचार में काफी सहायता मिली।
2. धर्म प्रचार का दूसरा साधन धर्मानुशासन था। इसका मतलब था नैतिकता संबंधी नियम। इसके लिए पुरुषों और राजुकों को हिदायतें दी गयी थीं।
3. धर्म स्तंभों की स्थापना के द्वारा भी अशोक ने धम्म के प्रचार का एक मौलिक प्रयत्न किया। इन धर्म स्तंभों पर धर्मलिपियाँ खुदवायीं गयी थीं। चतुर्थ, पंचम और षष्ठ शिलाभिलेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन अभिलेखों का उद्देश्य इन्हें चिरस्थायी बनाना था ताकि बाद में राजा के उत्तराधिकारी इन्हें देखकर राजा का अनुकरण करें।
4. धर्म महामात्रों की नियुक्ति भी इस ख्याल से काफी महत्त्वपूर्ण थी। प्रजा के हित के लिए और धर्म वृद्धि के लिए इनकी नियुक्ति की गयी थी। इन्हीं के अधीन दान विभाग का प्रबंध था।
5. अशोक द्वारा किये गये लोकहित और सुख के कार्यों का वास्तविक उद्देश्य धर्मवृद्धि ही था। उसके कार्यों में वृक्षारोपण, कुएँ की खुदाई, विश्राम गृहों की स्थापना तथा पशुवध का निषेध प्रमुख थे। इनसे धर्म वृद्धि के कार्य हुए।
6. धर्म यात्रा की प्रथा भी धम्म प्रचार के माध्यम बने। इससे देश के विभिन्न भागों में प्रगति । हुई। इसके अलावा राजदूतों की नियुक्ति भी धम्म प्रचार में सहायक सिद्ध हुई।
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