Discuss the career and achievements of Chandragupta Maurya. (चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी और उपलब्धियों का वर्णन करें।)
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चन्द्रगुप्त का प्रारम्भिक जीवन :
चन्द्रगुप्त के प्रारम्भिक जीवन एवं उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। इस सम्बन्ध में मुख्यतः दो विचारधाराएँ प्रचलित हैं। पहले मत के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म निम्नकुल में हुआ था और वह शूद्र जाति से सम्बन्धित था, दूसरा मत उसे क्षत्रिय मानता है। एक अन्य मत के अनुसार वह मोरिय जाति से सम्बन्धित था। विष्णुपुराण के अनुसार चन्द्रगुप्त का जन्म नन्दवंशीय राजा की मुरा नामक स्त्री से हुआ था। वृहत्कथा में भी चन्द्रगुप्त को निम्नकुल का बतलाया गया है। इसी प्रकार मुद्राराक्षस नामक नाटक मंथ चन्द्रगुप्त के लिए वृषल शब्द का व्यवहार किया गया है जिसका अर्थ कुछ विद्वान निम्नकुल से लेते हैं। इनके विपरीत जैनग्रंथों के अनुसार चन्द्रगुप्त एक ऐसे गाँव के प्रधान का पुत्र था जहाँ मोर पाले जाते थे बौद्धग्रंथों में उसे क्षत्रिय के रूप में दिखलाया गया है। कुछ मध्यकालीन शिलालेखों में उसे सूर्यवंशी क्षत्रिय भी माना गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य का उत्पत्ति अत्यन्त विवादास्पद है। सर्वमान्य मत यह है कि चन्द्रगुप्त मोरिय नामक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न 'हुआ था, जो पिप्पलीवन में रहते थे।
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार चन्द्रगुप्त का पिता (नाम अज्ञात) मोरियों का एक मुखिया था। वह संभवत: किसी संघर्ष में मारा गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी भागकर पाटलिपुत्र पहुँची तथा वहीं उसने एक बालक को जन्म दिया जो आगे चलकर चन्द्रगुप्त के नाम से विख्यात हुआ। सुरक्षा के दृष्टिकोण से चन्द्रगुप्त को एक गोशाला में छोड़ दिया गया। बाद में बालक का पालन-पोषण एक गड़ेरिया (चरवाहा) ने किया।
बालक चन्द्रगुप्त बचपन में ही कुशाग्र बुद्धि का था। दन्तकथाओं के अनुसार उसने 'राजकीलम' नामक खेल की खोज की। इस खेल में वह स्वयं राजा बनता था तथा साथियों को अपना दरबारी बनाता था। वह स्वयं ऊँची जगह पर बैठकर न्याय करता था। कहा जाता है कि ऐसे ही खेल के समय उस पर चाणक्य या कौटिल्य की नजर पड़ी। कौटिल्य तक्षशिला का प्रसिद्ध आचार्य था। वह यूनानियों से भारत को मुक्ति दिलाने के सम्बन्ध में नन्दशासक धनानन्द के पास पाटलिपुत्र आया था, परन्तु नन्द शासक ने उसे अपमानित कर निकाल दिया था। इसलिए इस अपमान से काफी क्षुब्ध एवं क्रुद्ध था। बालक चन्द्रगुप्त में उसे अपने उद्देश्यों की पूर्ति का साधन नजर आया। वह चन्द्रगुप्त के द्वारा नन्दवंश को नष्ट करवाने का निर्णय ले चुका था। कहा जाता है कि उसने गड़ेरिया से चन्द्रगुप्त को खरीद लिया तथा उसे अपने साथ तक्षशिला ले गया। तक्षशिला में उसने चन्द्रगुप्त को उचित शिक्षा दी तथा उसे हर प्रकार से अपने कार्य के अनुकूल तैयार किया।
चन्द्रगुप्त का विजय अभियान :
इस समय तक मगध में नन्द शासकों का शासन काफी बदनाम हो चुका था। उसके अत्याचारी शासन से जनता क्षुब्ध थी। उत्तर-पश्चिम भारत में यूनानियों की शक्ति काफी बढ़ गई थी। इस प्रदेश के एक बड़े हिस्से पर उनका प्रभुत्व स्थापित हो चुका था, अत: चन्द्रगुप्त और चाणक्य के समक्ष दो प्रमुख समस्याएँ थीं
(1) मगध में अत्याचारी शासन का अन्त करना एवं (2) देश को यूनानियों के चंगुल से बचाना। अपने पहले उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे विदेशी सहायता लेने से भी नहीं हिचकिचाये। जस्टिन के अनुसार चन्द्रगुप्त सिकन्दर के पास उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए गया था, परन्तु उसकी उद्दण्डता से सिकन्दर ने उसे मार डालने का आदेश दिया, फलत: चन्द्रगुप्त को भाग कर अपनी जान बचानी पड़ी।
अब चन्द्रगुप्त ने अपने-आपको संगठित करना प्रारंभ किया। उसने पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेश में फैले यूनानी शासन के विरुद्ध जनता के असन्तोष का लाभ उठाया। उसने जनता को प्रोत्साहित किया तथा उनका नेता बन गया। उसने एक सुसंगठित सेना भी तैयार की। इसमें पंजाब में रहने वाले लड़ाकू वीरों को शामिल किया गया। मुद्राराक्षस और परिशिष्टवर्धन से ज्ञात होता है कि अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए चन्द्रगुप्त ने हिमालय के पर्वतीय प्रदेश के राजा पर्वतक से मित्रता भी स्थापित की। ने अपने आपको सामरिक दृष्टिकोण से मजबूत कर चन्द्रगुप्त ने यूनानियों को भारत से बाहर खदेड़ने का बीड़ा उठाया।
जस्टिन महोदय के इस कथन से प्रतीत होता है कि सिकन्दर की भारत से वापसी के पश्चात् भारत में यूनानी सत्ता कमजोर पड़ गई थी। भारत में जगह-जगह यूनानियों के विरुद्ध विद्रोह हो रहे थे। ऐसे ही एक विद्रोह का नेता स्वयं चन्द्रगुप्त था। इसी बीच 323 ई० पूर्व में सिकन्दर की मृत्यु हो गई। इस घटना ने यूनानियों को और अधिक कमजोर कर दिया। फलस्वरूप यूनानियों की दुर्बलता का फायदा उठाकर चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण सिन्ध एवं पंजाब पर अधिकार कायम कर लिया तथा-शासक बन गया।
पंजाब और सिंध को आधार बनाकर चन्द्रगुप्त मगध विजय की तरफ मुड़ा। उसके मगध अभियान की गाथा महावंश टीका, मिलिन्दपन्हों, मुद्राराक्षस आदि में संयोजित है, परन्तु इनसे मगध अभियान का पूर्ण विवरण प्राप्त नहीं होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पंजाब से चन्द्रगुप्त मगध की तरफ बढ़ा। रास्ते में पड़नेवाली अनेक जगहों पर विजय हासिल करते हुए वह मगध की तत्कालीन राजधानी पाटलिपुत्र पहुँचा। यहाँ की जनता ने आक्रमणकारियों का स्वागत किया क्योंकि वह नन्द शासकों के अत्याचार से ऊब चुकी थी। जनसमर्थन प्राप्त कर वह नन्द राजा धननन्द को पराजित करने में सफल हो गया। नन्द शासक या तो देश छोड़कर भाग गया या भीषण युद्ध में मारा गया। नन्दों को परास्त कर 321 ई० पू० चन्द्रगुप्त मगध का सम्राट बन गया।
यूनानी लेखकों के विवरण से पता चलता है कि जिस समय चन्द्रगुप्त पूर्व में मगध राज्य का विस्तार कर रहा था, पश्चिमोत्तर प्रांत को फिर से यूनानी आक्रमण का खतरा पैदा हो गया था। सिकन्दर के मृत्युपरान्त उसके सेनानियों में साम्राज्य पर अधिकार प्राप्त करने हेतु संघर्ष प्रारंभ हुए। इनमें सेल्युकस ने अपनी स्थिति काफी सुदृढ़ कर ली। वह एक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह सिकन्दर के खोये हुए साम्राज्य को फिर से हासिल करना चाहता था। उसने दो बार भारत-विजय की योजना बनाई। इस बार उसे चन्द्रगुप्त की शक्ति का सामना करना पड़ा। ग्रीक इतिहासकार इस युद्ध का पूर्ण विवरण नहीं देते हैं। 305 ई० पूर्व में सेल्युकस एवं चन्द्रगुप्त का सामना सिन्धु नदी के तट पर हुआ। इस युद्ध में सम्भवतः सेल्युकस को पराजय का मुँह देखना पड़ा। दोनों के बीच एक संधि हुई। संधि की शर्तों के मुताबिक सेल्युकस को अपने राज्य का एक बड़ा भाग चन्द्रगुप्त को देना पड़ा। उसे एरिया, हेरात, आरकोशिया, कन्दहार, गेड्रोसिया, बलूचिस्तान एवं पैरोपेनिसेड्राई अर्थात् काबुल, गांधार प्रदेश और सिन्धु के मध्य स्थित इलाका चन्द्रगुप्त को सौंप देना पड़ा। इसके फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य की सीमा ईरान तक पहुंच गई। दोनों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध भी कायम हुआ। संभवतः सेल्युकस ने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया। दोनों में मित्रता कायम हो गई। चन्द्रगुप्त ने सेल्युकस को उपहार स्वरूप 500 हाथी प्रदान किये। सेल्युकस ने मेगास्थनीज को राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा। वह काफी दिनों तक पाटलिपुत्र में रहा। उसने आँखों देखा वर्णन अपनी पुस्तक इण्डिका में किया है। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सिर्फ यूनानी आक्रमण के खतरे को टालने में सफल रहा, बल्कि उसे कई प्रांत भी मिल गये।
चन्द्रगुप्त के अन्य विजय अभियानों का उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु शक शासक रुद्रदामन के अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त के मनोनीत प्रांतपति पुष्पगुप्त ने सौराष्ट्र प्रदेश पर अपना अधिकार कायम कर लिया था। तमिल ग्रन्थों से भी पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने दक्षिण भारत के कुछ हिस्से पर भी अपना आधिपत्य जमा लिया था।
चन्द्रगुप्त की शासन-व्यवस्था:
इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, परन्तु वह इतिहास में सिर्फ एक विजेता के रूप में ही प्रसिद्ध नहीं है, बल्कि साम्राज्य की स्थापना के साथ-साथ उसने एक सुदृढ़ शासन व्यवस्था की नींव भी डाली। अर्थशास्त्र और इण्डिका दोनों ही से उसके प्रशासन के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है। उसकी शक्ति असीमित थी, पर वह स्वेच्छाचारी या निरंकुश नहीं था बल्कि प्रजा के हित को सदैव ध्यान में रखता था। वह स्वयं प्रशासन की निगरानी करता था। राजकाज में सहायता देने के लिए मंत्रिपरिषद् के अतिरिक्त एक सुसंगठित नौकरशाही भी थी जिसके जिम्मे विभिन्न प्रशासनिक विभागों की देखभाल सौंप दी गई थी। इन अधिकारियों की सुख-सुविधा का ध्यान राज्य रखता था, परन्तु इन पर कठोर नियंत्रण भी रखता था। शासन की सुविधा के लिए प्रान्तीय एवं स्थानीय शासन की व्यवस्था की गई थी। सुदृढ नगर प्रशासन व्यवस्था चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ही देखने को मिलती है। राजा में भी दिलचस्पी रखता था तथा झगड़ा के निपटारे हेतु विभिन्न न्यायालयों की स्थापना की गई थी। चन्द्रगुप्त ने एक स्थायी एवं विशाल सेना का भी संगठन किया, जिसके बल पर ही वह चक्रवर्ती सम्राट बन सका। राजा राज्य की आर्थिक व्यवस्था पर भी ध्यान रखता था। वस्तुतः राज्य के जितने भी अधिकारी थे, उनका कर्त्तव्य था राज्य के आर्थिक हितों की सुरक्षा करना। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय राजा के हाथों में सत्ता केन्द्रित थी और राजा प्रजा के हित के लिए बराबर प्रयत्नशील रहता था।
भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त का स्थान:
एलियन के विवरण से पाटलिपुत्र एवं चन्द्रगुप्त के राजमहल की महत्ता पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है। चन्द्रगुप्त के दैनिक जीवन की चर्चा करते हुए मेगास्थनीज कहता है कि राजा स्त्री अंगरक्षकों से घिरा बाहर निकलता था। वह सिर्फ चार अवसरों पर राजप्रासाद से बैठकर निकलता था युद्ध, यज्ञ, न्याय तथा आखेट के लिए। धार्मिक या अन्य अवसरों पर वह पालकी पर बैठकर निकलता था। राजा का अधिक समय राजकाज में ही व्यतीत होता था, परन्तु उसकी दिलचस्पी खेलकूद में भी थी। वह कभी-कभी मदिरापान करने में भी नहीं झिझकता था, परन्तु कभी भी इतना अधिक नहीं पीता था कि महत्त्वाकांक्षी नारियों के अनुचित षड्यंत्रों का शिकार बने। वह दिन में नहीं पीता था और रात्रि में यदा-कदा षड्यंत्रों से आत्मरक्षार्थ विस्तर बदलता रहता था।
निःसन्देह चन्द्रगुप्त प्राचीन भारतीय इतिहास का एक महान शासक था। साधारण वंश में जन्म लेकर अपने पराक्रम एवं शौर्य से शीघ्र ही भारत का प्रमुख शासक बन गया। उसने मगध की त्रस्त जनता को नन्द शासकों के अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाई एवं यवनों (यूनानियों) को भारत-भूमि से खदेड़कर देश को गुलामी की जंजीर से मुक्त कराया। वह एक महान सेनानायक, कुशल संगठनकर्ता एवं महान नेता था। उसने सुदृढ़ प्रशासन की व्यवस्था कर मौर्य साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान किया। वह कला-कौशल का भी प्रेमी था जैसा कि उसके राजप्रासाद के विवरण से स्पष्ट होता है। चाणक्य या कौटिल्य जैसा राजनीतिशास्त्र का महापण्डित उसका सलाहकार एवं महामंत्री था। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत की महान विभूतियों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। वह प्रथम भारतीय साम्राज्य निर्माता, मुक्तिदाता एवं कुशल प्रशासक के रूप में भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है।
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